चंद्रा और अंबानी के मामलों में कुछ म्यूचुअल फंड्स ने गिरवी रखे शेयरों पर कर्ज की शर्त टूटने के बावजूद उन्हें कुछ समय तक नहीं बेचने का वादा किया है। उसकी वजह यह है कि वे उनकी वैल्यू को बचाना चाहते हैं। लेकिन वे किसकी वैल्यू बचाने की कोशिश कर रहे हैं- प्रमोटरों के बिजनेस की या म्यूचुअल फंड यूनिट होल्डर्स की
ग्लोबल फाइनैंशल क्राइसिस (जीएफसी) आम निवेशकों के बीच एक जाना-माना शब्द है। सब-प्राइम लेंडिंग के कारण यह संकट पैदा हुआ था, जिसके बाद दुनियाभर के सेंट्रल बैंकों को करीब एक दशक तक रातदिन नए नोटों की छपाई करनी पड़ी, ताकि फाइनैंशल मार्केट्स को बचाया जा सके। अमेरिका में जिन लोगों के पास कर्ज लेने की योग्यता नहीं थी, उन्हें होम लोन देने से सब-प्राइम संकट खड़ा हुआ था।
साल के अंत में मिलने वाले बोनस के लालच में लेंडर्स मूर्ख ग्राहकों को टॉप-अप लोन देते गए, जिनके घर की कीमत कागजों पर दिन-ब-दिन बढ़ रही थी। तब बहुत कम ग्राहकों ने सोचा था कि घरों की कीमत में गिरावट भी शुरू हो सकती है। होम बायर्स के जब खुशनुमा दिन चल रहे थे, तब उन्होंने टॉप-अप लोन का पैसा कार खरीदने, घूमने और आधुनिक गैजेट्स पर खर्च किया, जिससे कंजम्पशन में अप्रत्याशित तेजी आई थी। जब अमेरिका में सभी जगहों पर घरों की कीमत में गिरावट शुरू हुई, तो लोन की वैल्यू कम हो गई। इससे हजारों की संख्या में लोगों को छत गंवानी पड़ी। सब-प्राइम के खड्डे में फंसने के बाद लोगों को अहसास हुआ कि उनके साथ क्या हुआ है।
2019 में भारत में लीवरेज यानी कर्ज का यही खेल प्रमोटर फंडिंग के रूप में खेला जा रहा है। हालांकि, इसका स्केल सब-प्राइम क्राइसिस जितना बड़ा नहीं है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, प्रमोटरों ने कंपनियों में अपने हिस्से के शेयर गिरवी रखकर कम से कम 1.2 लाख करोड़ रुपये का कर्ज लिया है। किसी बिजनेस की फंडिंग के लिए इस तरह से कर्ज लेने में कुछ गलत नहीं है। हालांकि, आमतौर पर वित्तीय संस्थान फिजिकल एसेट्स को गिरवी रखकर कर्ज देते हैं, लेकिन फाइनेंशियल एसेट्स भी फंडिंग का एक जरिया हो सकते हैं।
इनमें शेयर और बॉन्ड शामिल हैं। इन पर कर्ज लेने में वैसे तो कोई बुराई नहीं है, लेकिन आप अपनी नेटवर्थ के किस लेवल और किस मकसद से कर्ज लेते हैं, इससे आपका भविष्य तय होता है। फिजिकल एसेट्स (रियल एस्टेट या गोल्ड) के उलट फाइनेंशियल एसेट्स की वैल्यू में बहुत कम समय में तेज गिरावट आ सकती है। ऐसे में लेंडर्स के पास अपना पैसा रिकवर करने के लिए पर्याप्त कवर खत्म हो जाता है।
जी ग्रुप के सुभाष चंद्रा और एडीएजी ग्रुप के अनिल अंबानी की मिसाल हाल में हम ऐसे मामलों में देख चुके हैं। दोनों ही बिजनसमेन ने लिस्टेड कंपनियों में अपने हिस्से के शेयर गिरवी रखकर कर्ज लिए थे। जब इनकी वैल्यू एक सीमा से कम हो गई तो लेंडर्स ने गिरवी रखे शेयरों की बिक्री शुरू कर दी। इससे इन शेयरों की वैल्यू और कम हुई। इस प्रैक्टिस में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन इससे दो सवाल खड़े होते हैं। पहला सवाल फाइनैंशल सिस्टम से जुड़ा है, जबकि दूसरा माइनॉरिटी शेयरहोल्डर्स से।
देखा गया है कि ऐसे मामलों में होल्डिंग कंपनी अपने शेयर गिरवी रखकर कर्ज लेती है और उसे एक स्पेशल पर्पज व्हीकल में लगाती है। अगर लेंडर्स के लिए ऐसे मामलों में डेट टु इक्विटी रेशियो 2:1 का होता है, तो वह वास्तव प्रमोटर के लिए 8:1 या इससे भी अधिक हो सकता है। ऐसे में जब गिरवी रखे शेयरों की कीमत गिरती है, तो कुछ प्रमोटर्स उसकी परवाह नहीं करते क्योंकि वे पहले ही बुरे वक्त के लिए उससे काफी फंड जुटा चुके होते हैं।
चंद्रा और अंबानी के मामलों में कुछ म्यूचुअल फंड्स ने गिरवी रखे शेयरों पर कर्ज की शर्त टूटने के बावजूद उन्हें कुछ समय तक नहीं बेचने का वादा किया है। उसकी वजह यह है कि वे उनकी वैल्यू को बचाना चाहते हैं। लेकिन वे किसकी वैल्यू बचाने की कोशिश कर रहे हैं- प्रमोटरों के बिजनेस की या म्यूचुअल फंड यूनिट होल्डर्स की? अगर वैल्यू में रिकवरी नहीं होगी, तब क्या होगा? अगर प्रमोटर फंडिंग से कोई लॉस होगा तो क्या ऐसेट मैनेजमेंट कंपनियां निवेशकों को उसकी भरपाई करेंगी?
2019 में भारत में लीवरेज यानी कर्ज का यही खेल प्रमोटर फंडिंग के रूप में खेला जा रहा है। हालांकि, इसका स्केल सब-प्राइम क्राइसिस जितना बड़ा नहीं है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, प्रमोटरों ने कंपनियों में अपने हिस्से के शेयर गिरवी रखकर कम से कम 1.2 लाख करोड़ रुपये का कर्ज लिया है। किसी बिजनेस की फंडिंग के लिए इस तरह से कर्ज लेने में कुछ गलत नहीं है। हालांकि, आमतौर पर वित्तीय संस्थान फिजिकल एसेट्स को गिरवी रखकर कर्ज देते हैं, लेकिन फाइनेंशियल एसेट्स भी फंडिंग का एक जरिया हो सकते हैं।
इनमें शेयर और बॉन्ड शामिल हैं। इन पर कर्ज लेने में वैसे तो कोई बुराई नहीं है, लेकिन आप अपनी नेटवर्थ के किस लेवल और किस मकसद से कर्ज लेते हैं, इससे आपका भविष्य तय होता है। फिजिकल एसेट्स (रियल एस्टेट या गोल्ड) के उलट फाइनेंशियल एसेट्स की वैल्यू में बहुत कम समय में तेज गिरावट आ सकती है। ऐसे में लेंडर्स के पास अपना पैसा रिकवर करने के लिए पर्याप्त कवर खत्म हो जाता है।
जी ग्रुप के सुभाष चंद्रा और एडीएजी ग्रुप के अनिल अंबानी की मिसाल हाल में हम ऐसे मामलों में देख चुके हैं। दोनों ही बिजनसमेन ने लिस्टेड कंपनियों में अपने हिस्से के शेयर गिरवी रखकर कर्ज लिए थे। जब इनकी वैल्यू एक सीमा से कम हो गई तो लेंडर्स ने गिरवी रखे शेयरों की बिक्री शुरू कर दी। इससे इन शेयरों की वैल्यू और कम हुई। इस प्रैक्टिस में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन इससे दो सवाल खड़े होते हैं। पहला सवाल फाइनैंशल सिस्टम से जुड़ा है, जबकि दूसरा माइनॉरिटी शेयरहोल्डर्स से।
देखा गया है कि ऐसे मामलों में होल्डिंग कंपनी अपने शेयर गिरवी रखकर कर्ज लेती है और उसे एक स्पेशल पर्पज व्हीकल में लगाती है। अगर लेंडर्स के लिए ऐसे मामलों में डेट टु इक्विटी रेशियो 2:1 का होता है, तो वह वास्तव प्रमोटर के लिए 8:1 या इससे भी अधिक हो सकता है। ऐसे में जब गिरवी रखे शेयरों की कीमत गिरती है, तो कुछ प्रमोटर्स उसकी परवाह नहीं करते क्योंकि वे पहले ही बुरे वक्त के लिए उससे काफी फंड जुटा चुके होते हैं।
चंद्रा और अंबानी के मामलों में कुछ म्यूचुअल फंड्स ने गिरवी रखे शेयरों पर कर्ज की शर्त टूटने के बावजूद उन्हें कुछ समय तक नहीं बेचने का वादा किया है। उसकी वजह यह है कि वे उनकी वैल्यू को बचाना चाहते हैं। लेकिन वे किसकी वैल्यू बचाने की कोशिश कर रहे हैं- प्रमोटरों के बिजनेस की या म्यूचुअल फंड यूनिट होल्डर्स की? अगर वैल्यू में रिकवरी नहीं होगी, तब क्या होगा? अगर प्रमोटर फंडिंग से कोई लॉस होगा तो क्या ऐसेट मैनेजमेंट कंपनियां निवेशकों को उसकी भरपाई करेंगी?
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